Monday, 15 January 2018

गागरोन का किला

गागरोन का किला – हजारों महिलाए ने यहाँ किया था सामूहिक जौहर

दुनिया में सबसे अधिक किले और गढ़ यदि कहीं हैं तो वो राजस्थान में। राजस्थान के किसी भी हिस्से में चले जाइए, कोई न कोई दुर्ग या किला सीना ताने आपका इंतजार करता हुआ आपको दिख जाएगा। आज हम आपको एक ऐसे ही किले ‘गागरोन’ के बारे में बताएंगे। राजस्थान के झालावाड़ जिले में स्थित यह किला चारों ओर से पानी से घिरा हुआ है। यही नहीं यह भारत का एकमात्र ऐसा किला है जिसकी नींव नहीं है।
गागरोन का किला अपने गौरवमयी इतिहास के कारण भी जाना जाता है। सैकड़ों साल पहले जब यहां के शासक अचलदास खींची मालवा के शासक होशंग शाह से हार गए थे तो यहां की राजपूत महिलाओं ने खुद को दुश्मनों से बचाने के लिए जौहर (जिंदा जला दिया) कर दिया था। सैकड़ों की तादाद में महिलाओं ने मौत को गले लगा लिया था। इस शानदार धरोहर को यूनेस्को ने वर्ल्ड हेरिटेज की सूची में भी शामिल किया है।

खासियतों से भरा है यह किला
गागरोन किले का निर्माण कार्य डोड राजा बीजलदेव ने बारहवीं सदी में करवाया था और 300 साल तक यहां खीची राजा रहे। यहां 14 युद्ध और 2 जोहर (जिसमें महिलाओं ने अपने को मौत के गले लगा लिया) हुए हैं। यह उत्तरी भारत का एकमात्र ऐसा किला है जो चारों ओर से पानी से घिरा हुआ है इस कारण इसे जलदुर्ग के नाम से भी पुकारा जाता है। यह एकमात्र ऐसा किला है जिसके तीन परकोटे हैं। सामान्यतया सभी किलो के दो ही परकोटे हैं। इसके अलावा यह भारत का एकमात्र ऐसा किला है जिसे बगैर नींव के तैयार किया गया है। बुर्ज पहाडियों से मिली हुई है।

आखिर क्यों जलना पड़ा था हजारों महिलाओं को?
अचलदास खींची मालवा के इतिहास प्रसिद्ध गढ़ गागरोन के अंतिम प्रतापी नरेश थे। मध्यकाल में गागरोन की संपन्नता एवं समृद्धि पर मालवा में बढ़ती मुस्लिम शक्ति की गिद्ध जैसी नजर सदैव लगी रहती थी। 1423 ई. में मांडू के सुल्तान होशंगशाह ने 30 हजार घुड़सवार, 84 हाथी व अनगिनत पैदल सेना अनेक अमीर राव व राजाओं के साथ इस गढ़ को घेर लिया। अपने से कई गुना बड़ी सेना तथा उन्नत अस्त्रों के सामने जब अचलदास को अपनी पराजय निश्चित जान पड़ी तो उन्होंने कायरतापूर्ण आत्मसमर्पण के स्थान पर राजपूती परंपरा में, वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। दुश्मन से अपनी असमत की रक्षा के लिए हजारों महिलाओं ने मौत को गले लगा लिया था।

आखिर क्यों सैकड़ों वर्षों तक अचलदास के पलंग को किसी ने हाथ नहीं लगाया?
होशंगशाह जीत के बाद अचलदास की वीरता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने राजा के व्यक्तिगत निवास और अन्य स्मृतियों से कोई छेड़छाड़ नहीं किया। सैकड़ों वर्षों तक यह दुर्ग मुसलमानों के पास रहा, लेकिन न जाने किसी भय या आदर से किसी ने भी अचलदास के शयनकक्ष में से उसके पलंग को हटाने या नष्ट करने का साहस नहीं किया। 1950 तक यह पलंग उसी जगह पर लगा रहा।
कई दिनों तक आती रहीं पलंग पर राजा के सोने और हुक्का पीने की आवाज
रेलवे में सुपरिटेंडेंट रहे ठाकुर जसवंत सिंह ने इस पलंग के बारे में रोचक बात बताई। उनके चाचा मोती सिंह जब गागरोन के किलेदार थे तब वे कई दिनों तक इस किले में रहे थे। उन्होंने स्वयं इस पलंग और उसके जीर्ण-शीर्ण बिस्तरों को देखा था। उन्होंने बतलाया कि उस समय लोगों की मान्यता थी कि राजा हर रात आ कर इस पलंग पर शयन करते हैं। रात को कई लोगों ने भी इस कक्ष से किसी के हुक्का पीने की आवाजें सुनी थीं।
हर शाम पलंग पर लगे बिस्तर को साफ कर, व्यवस्थित करने का काम राज्य की ओर एक नाई करता था और उसे रोज सुबह पलंग के सिरहाने पांच रुपए रखे मिलते थे। कहते हैं एक दिन रुपए मिलने की बात नाई ने किसी से कह दी। तबसे रुपए मिलने बंद हो गए। लेकिन बिस्तरों की व्यवस्था, जब तक कोटा रियासत रही, बदस्तूर चलती रही। कोटा रियासत के राजस्थान में विलय के बाद यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त होने लगी।

मौत की सजा के लिए होता था इसका प्रयोग
किले के दो मुख्य प्रवेश द्वार हैं। एक द्वार नदी की ओर निकलता है तो दूसरा पहाड़ी रास्ते की ओर। इतिहासकारों के अनुसार, इस दुर्ग का निर्माण सातवीं सदी से लेकर चौदहवीं सदी तक चला था। पहले इस किले का उपयोग दुश्मनों को मौत की सजा देने के लिए किया जाता था।

किले के अंदर हैं कई खास महल
किले के अंदर गणेश पोल, नक्कारखाना, भैरवी पोल, किशन पोल, सिलेहखाना का दरवाजा महत्पवूर्ण दरवाजे हैं। इसके अलावा दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, जनाना महल, मधुसूदन मंदिर, रंग महल आदि दुर्ग परिसर में बने अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल हैं।
अकबर ने बनाया था मुख्यालय
मध्ययुग में गागरोन का महत्व इस बात से मालूम होता है कि प्रसिद्ध सम्राट शेरशाह एवं अकबर महान दोनों ने इस पर व्यक्तिगत रूप से आ कर विजय प्राप्त की और इसे अपने साम्राज्य में मिला दिया। अकबर ने इसे अपना मुख्यालय भी बनाया लेकिन अंत में इसे अपने नवरत्नों में से एक बीकानेर के राजपुत्र पृथ्वीराज को जागीर में दिया।

नहीं उठी खांडा तो रास्ते में छोड़ गए चोर
खींची राजा की भारी तलवार को एक एडीसी साहब उड़ा ले गए। लेकिन वजनी खांडा चुरा कर ले जाने वाले उसका वजन न उठा सके तो उसें रास्ते में ही छोड़ गए। अब वह झालावाड़ के थाने में बंद पड़ा है। खींची राजा के सदियों पुराने पलंग और उसके बिस्तरों को लोगों ने गायब कर दिया है। तोपें लोगों ने गला दीं।
सबसे अलग हैं यहां के तोते
गागरोन के तोते बड़े मशहूर हैं ये सामान्य तोतों से आकार में दोगुने होते हैं तथा इनका रंग भी अधिक गहरा होता है इनके पंखों पर लाल निशान होते हैं नर तोते के गले के नीचे गहरे काले रंग की और ऊपर गहरे लाल रंग की कंठी होती है। कहा जाता है कि गागरोन किले की राम-बुर्ज में पैदा हुए हीरामन तोते बोलने में बड़े दक्ष होते हैं।

मनुष्यों के जैसे बोलते हैं यहां के तोते
यहां के तोते मनुष्यों के बोली की हूबहू नकल कर लेता है। गुजरात के बहादुरशाह ने 1532 में यह किला मेवाड़ के महाराणा विक्रमादित्य से जीत लिया था। बहादुरशाह गागरोन का एक तोता अपने साथ रखता था। बाद में, जब हुमायूं ने बहादुरशाह पर विजय प्राप्त की तो जीत के सामानों में आदमी की जुबान में बोलनेवाला यह तोता भी उसे सोने के पिंजरे में बंद मिला। हुमायूं उस समय मंदसौर में था। उस समय एक सेनापति की दगाबाजी पर हुमायूं ने तोते को मारने की बात कही थी।
सेनापति की गद्दारी पर तोते ने पुकारा गद्दार-गद्दार
बहादुरशाह का सेनापति रूमी खान अपने मालिक को छोड़ कर हुमायूं से जा मिला था। कहते हैं जब रूमी खान हुमायूं के शिविर में आया तो उसे देख कर यह तोता गद्दार-गद्दार चिल्लाने लगा। इसे सुन कर रूमी खान बड़ा लज्जित हुआ तथा हुमायूं ने नाराज हो कर कहा कि यदि तोते कि जगह यह आदमी होता तो मैं इसकी जबान कटवा देता।

बेहतर पिकनिक स्पॉट
कालीसिंध व आहू नदी के संगम स्थल पर बना यह दुर्ग आसपास की हरी भरी पहाडिय़ों की वजह से पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। गागरोन दुर्ग का विहंगम नजारा पीपाधाम से काफी लुभाता है। इन स्थानों पर लोग आकर गोठ पार्टियां करते हैं। लोगों के लिए यह बेहतर पिकनिक स्पॉट है। इस शानदार धरोहर को यूनेस्को ने अपनी वर्ल्ड हेरिटेज साइट की सूची में शामिल किया है।

रूद्रा प्रताप सिंह राठौड़ कमल जोधा परावा
  ठिकाना परावा 
सुजानगढ़ चूरू 
राजस्थान -331518
9928634202

Wednesday, 10 January 2018

History of Bhati Rajput Rajvansh - भाटी राजपूत राजवंश,



•°•भाटी राजपुत राजवंश•°•

भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन




•°•भाटी राजपुत राजवंश•°•
गढ़ चितौड़ गढ़ जालोर गढ़ कुंभलमेर ।
जैसलदे चणायो भाटीयों जग मे जैसलमेर ॥

गढ़ तणोट गढ़ मांडव गढ़ सांगानेर ।
महारावल चणायों भाटीयों भल गढ़ जैसलमेर ॥

गढ़ विजणोट गढ़ अर्बद देखो गढ़ अजमेर !
सोने रुपे झगमगे जग मे गढ़ जैसलमेर ॥

गढ़ बुंदी गढ़ मंडोवर महा गढ़ आमेर ।
मरुधरा गुणवंत गढ़ जैसलमेर ॥

गढ़ महेरान गढ़ नागोर खेड़गढ़ बाड़मेर ।
माड़ धरा महीपति जहाँ गढ़ जैसलमेर ॥




वंश परिचय :-

चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है | कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे | सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये | ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है |
श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध ' का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |

कुल परम्परा :-

यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |






३.कुलदेवता :-

लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |










४. कुलदेवी :-

स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |







५. इष्टदेव

श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |

६.वेद :-

यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है - ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद |  इनमे प्रत्येक में चार भाग है - संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ' में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |............. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है

७.गोत्र :-

अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र '' अत्री '' कहलाया |

८.छत्र :-

मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |

9.ध्वज :-

भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |

१०.ढोल :-

भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |

११. नक्कारा :-

अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ' नगारबंद' ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है |''
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा |

१२.गुरु:-

रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना |''
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |

13.पुरोहित :-

पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |

14 पोळपात

रतनू चारण - भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |

15. नदी

यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |

16.वृक्ष

पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है

17.राग

मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |

18.माला

वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |

19.विरुद

उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की '; विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है






२.अभिवादन

जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |

21. राजचिन्ह :-
राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |

22.भट्टीक सम्वत :- 
भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है | वैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया | भाटी राजवंश  द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है | उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है |
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे | इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है | परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है | यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते |
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा |
खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा | इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं,  संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया | कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया | बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा |
एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है | यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है | भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-600 अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है | मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है

भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी ।

                                ::छतीस वंश ::
१ दस चन्द्रवंश        २ दस सूर्य वंश         ३ बारह ऋषि वंश     ४ चार अग्नि वंश

                                  :: चंद्रवंशी ::
१ तुंवर    २ यादव  ३ यवन  ४  चंदेल   ५ इदु  असा  ६ बेही    ७  तावणी   ८  जामड़ा  ९ गोड़    १०  झाला

                                 ::सुर्यवंश ::
१ गेहलोत  २ कछावा  ३ शुक्रवार  ४ गायक वाड़   ५ बड़गुजर ६ बनाकर ७ डाबी  ८ टाक  ९ रायजादा १० राठौर 

                                :: अग्निवंश ::
१      सोलंकी                २ चौहान             ३ पड़िहार                    ४ परमार

                               :: ऋषि वंश ::
 १ सिंगलआद २ आदपडिहार ३ ब्रह्मपांचल ४ भेटिया सीर ५ लुहावत ६ गोरखा ७ गावा ८ दीखबला ९ जनुवार १० अबतआखा ११ पैजवार १२ भुराजिया


  कवि चंदबरदाई के कथनानुसार

सूर्य वन्श की शाखायें:-
१. कछवाह२. राठौड ३. मौर्य ४. सिकरवार५. सिसोदिया ६.गहलोत ७.गौर ८.गहलबार ९.रेकबार १०. बडगूजर ११. कलहश १२. कटहरिय़ा
चन्द्र वंश की शाखायें:-
१.जादौन२.भाटी३.तन्वर४ चन्देल ५ .छोंकर६.होंड७.पुण्डीर८.कटैरिया९.·´दहिया १०.वै स
अग्निवंश की शाखायें:-
१.चौहान २.सोलंकी ३.परिहार ४.पमार ५. बिष्ट
ऋषिवंश की बारह शाखायें:-
१.सेंगर२.दीक्षित३.दायमा४.गौतम५.अनवार (राजा जनक के वंशज)६.विसेन७.करछुल८.हय९.अबकू तबकू १०.कठोक्स ११.द्लेला १२.बुन्देला 

History of Shekhawat


शेखावत वंश परिचय एवम् शेखावत वंश की शाखाएँ

शेखावत
शेखावत सूर्यवंशी कछवाह क्षत्रिय वंश की एक शाखा है देशी राज्यों के भारतीय संघ में विलय से पूर्व मनोहरपुर,शाहपुरा, खंडेला,सीकर, खेतडी,बिसाऊ,सुरजगढ़,नवलगढ़, मंडावा, मुकन्दगढ़, दांता,खुड,खाचरियाबास, दूंद्लोद, अलसीसर,मलसिसर,रानोली आदि प्रभाव शाली ठिकाने शेखावतों के अधिकार में थे जो शेखावाटी नाम से प्रशिद्ध है ।

शेखावत वंश परिचय

वर्तमान में शेखावाटी की भौगोलिक सीमाएं सीकर और झुंझुनू दो जिलों तक ही सीमित है | भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज कछवाह कहलाये महाराजा कुश के वंशजों की एक शाखा अयोध्या से चल कर साकेत आयी, साकेत से रोहतास गढ़ और रोहताश से मध्य प्रदेश के उतरी भाग में निषद देश की राजधानी पदमावती आये |रोहतास गढ़ का एक राजकुमार तोरनमार मध्य प्रदेश आकर वाहन के राजा गौपाल का सेनापति बना और उसने नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर राज्य पर अधिकार कर लिया और सिहोनियाँ को अपनी राजधानी बनाया |कछवाहों के इसी वंश में सुरजपाल नाम का एक राजा हुवा जिसने ग्वालपाल नामक एक महात्मा के आदेश पर उन्ही नाम पर गोपाचल पर्वत पर ग्वालियर दुर्ग की नीवं डाली | महात्मा ने राजा को वरदान दिया था कि जब तक तेरे वंशज अपने नाम के आगे पाल शब्द लगाते रहेंगे यहाँ से उनका राज्य नष्ट नहीं होगा |सुरजपाल से 84 पीढ़ी बाद राजा नल हुवा जिसने नलपुर नामक नगर बसाया और नरवर के प्रशिध दुर्ग का निर्माण कराया | नरवर में नल का पुत्र ढोला (सल्ह्कुमार) हुवा जो राजस्थान में प्रचलित ढोला मारू के प्रेमाख्यान का प्रशिध नायक है |उसका विवाह पुन्गल कि राजकुमारी मार्वणी के साथ हुवा था, ढोला के पुत्र लक्ष्मण हुवा, लक्ष्मण का पुत्र भानु और भानु के परमप्रतापी महाराजाधिराज बज्र्दामा हुवा जिसने खोई हुई कछवाह राज्यलक्ष्मी का पुनः उद्धारकर ग्वालियर दुर्ग प्रतिहारों से पुनः जित लिया | बज्र्दामा के पुत्र मंगल राज हुवा जिसने पंजाब के मैदान में महमूद गजनवी के विरुद्ध उतरी भारत के राजाओं के संघ के साथ युद्ध कर अपनी वीरता प्रदर्शित की थी |मंगल राज दो पुत्र किर्तिराज व सुमित्र हुए,किर्तिराज को ग्वालियर व सुमित्र को नरवर का राज्य मिला |सुमित्र से कुछ पीढ़ी बाद सोढ्देव का पुत्र दुल्हेराय हुवा | जिनका विवाह dhundhad के मौरां के चौहान राजा की पुत्री से हुवा था |दौसा पर अधिकार करने के बाद दुल्हेराय ने मांची, bhandarej खोह और झोट्वाडा पर विजय पाकर सर्वप्रथम इस प्रदेश में कछवाह राज्य की नीवं डाली |मांची में इन्होने अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनवाया | वि.सं. 1093 में दुल्हेराय का देहांत हुवा | दुल्हेराय के पुत्र काकिलदेव पिता के उतराधिकारी हुए जिन्होंने आमेर के सुसावत जाति के मीणों का पराभव कर आमेर जीत लिया और अपनी राजधानी मांची से आमेर ले आये | काकिलदेव के बाद हणुदेव व जान्हड़देव आमेर के राजा बने जान्हड़देव के पुत्र पजवनराय हुए जो महँ योधा व सम्राट प्रथ्वीराज के सम्बन्धी व सेनापति थे |संयोगिता हरण के समय प्रथ्विराज का पीछा करती कन्नोज की विशाल सेना को रोकते हुए पज्वन राय जी ने वीर गति प्राप्त की थी आमेर नरेश पज्वन राय जी के बाद लगभग दो सो वर्षों बाद उनके वंशजों में वि.सं. 1423 में राजा उदयकरण आमेर के राजा बने,राजा उदयकरण के पुत्रो से कछवाहों की शेखावत, नरुका व राजावत नामक शाखाओं का निकास हुवा |उदयकरण जी के तीसरे पुत्र बालाजी जिन्हें बरवाडा की 12 गावों की जागीर मिली शेखावतों के आदि पुरुष थे |बालाजी के पुत्र मोकलजी हुए और मोकलजी के पुत्र महान योधा शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक महाराव शेखा का जनम वि.सं. 1490 में हुवा |वि. सं. 1502 में मोकलजी के निधन के बाद राव शेखाजी बरवाडा व नान के 24 गावों के स्वामी बने | राव शेखाजी ने अपने साहस वीरता व सेनिक संगठन से अपने आस पास के गावों पर धावे मारकर अपने छोटे से राज्य को 360 गावों के राज्य में बदल दिया | राव शेखाजी ने नान के पास अमरसर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया और शिखर गढ़ का निर्माण किया राव शेखाजी के वंशज उनके नाम पर शेखावत कहलाये जिनमे अनेकानेक वीर योधा,कला प्रेमी व स्वतंत्रता सेनानी हुए |शेखावत वंश जहाँ राजा रायसल जी,राव शिव सिंह जी, शार्दुल सिंह जी, भोजराज जी,सुजान सिंह आदि वीरों ने स्वतंत्र शेखावत राज्यों की स्थापना की वहीं बठोथ, पटोदा के ठाकुर डूंगर सिंह, जवाहर सिंह शेखावत ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चालू कर शेखावाटी में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था |
शेखावत वंश की शाखाएँ
1.1 टकनॆत शॆखावत
1.2 रतनावत शेखावत
1.3 मिलकपुरिया शेखावत
1.4 खेज्डोलिया शेखावत
1.5 सातलपोता शेखावत
1.6 रायमलोत शेखावत
1.7 तेजसी के शेखावत
1.8 सहसमल्जी का शेखावत
1.9 जगमाल जी का शेखावत
1.10 सुजावत शेखावत
1.11 लुनावत शेखावत
1.12 उग्रसेन जी का शेखावत
1.13 रायसलोत शेखावत
1.13.1 लाड्खानी
1.13.2 रावजी का शेखावत
1.13.3 ताजखानी शेखावत
1.13.4 परसरामजी का शेखावत
1.13.5 हरिरामजी का शेखावत
1.13.6 गिरधर जी का शेखावत
1.13.7 भोजराज जी का शेखावत
1.14 गोपाल जी का शेखावत
1.15 भेरू जी का शेखावत
1.16 चांदापोता शेखावत

शेखा जी पुत्रो व वंशजो के कई शाखाओं का प्रदुर्भाव हुआ जो निम्न है |
रतनावत शेखावत
महाराव शेखाजी के दुसरे पुत्र रतना जी के वंशज रतनावत शेखावत कहलाये इनका स्वामित्व बैराठ के पास प्रागपुर व पावठा पर था !हरियाणा के सतनाली के पास का इलाका रतनावातों का चालीसा कहा जाता है

मिलकपुरिया शेखावत
शेखा जी के पुत्र आभाजी,पुरन्जी,अचलजी के वंशज ग्राम मिलकपुर में रहने के कारण मिलकपुरिया शेखावत कहलाये इनके गावं बाढा की ढाणी, पलथाना ,सिश्याँ,देव गावं,दोरादास,कोलिडा,नारी,व श्री गंगानगर के पास मेघसर है !

खेज्डोलिया शेखावत
शेखा जी के पुत्र रिदमल जी वंशज खेजडोली गावं में बसने के कारण खेज्डोलिया शेखावत कहलाये !आलसर,भोजासर छोटा,भूमा छोटा,बेरी,पबाना,किरडोली,बिरमी,रोलसाहब्सर,गोविन्दपुरा,रोरू बड़ी,जोख,धोद,रोयल आदि इनके गावं है !
बाघावत शेखावत - शेखाजी के पुत्र भारमल जी के बड़े पुत्र बाघा जी वंशज बाघावत शेखावत कहलाते है ! इनके गावं जय पहाड़ी,ढाकास,Sahanusar,गरडवा,बिजोली,राजपर,प्रिथिसर,खंडवा,रोल आदि है !

सातलपोता शेखावत
शेखाजी के पुत्र कुम्भाजी के वंशज सातलपोता शेखावत कहलाते है

रायमलोत शेखावत
शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र रायमल जी के वंशज रायमलोत शेखावत कहलाते है ।

तेजसी के शेखावत
रायमल जी पुत्र तेज सिंह के वंशज तेजसी के शेखावत कहलाते है ये अलवर जिले के नारायणपुर,गाड़ी मामुर और बान्सुर के परगने में के और गावौं में आबाद है !

सहसमल्जी का शेखावत
रायमल जी के पुत्र सहसमल जी के वंशज सहसमल जी का शेखावत कहलाते है !इनकी जागीर में सांईवाड़ थी !

जगमाल जी का शेखावत
जगमाल जी रायमलोत के वंशज जगमालजी का शेखावत कहलाते है !इनकी १२ गावों की जागीर हमीरपुर थी जहाँ ये आबाद है

सुजावत शेखावत
सूजा रायमलोत के पुत्र सुजावत शेखावत कहलाये !सुजाजी रायमल जी के ज्यैष्ठ पुत्र थे जो अमरसर के राजा बने !

लुनावत शेखावत
लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !

उग्रसेन जी का शेखावत
अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

रायसलोत शेखावत
लाम्याँ की छोटीसी जागीर से खंडेला व रेवासा का स्वतंत्र राज्य स्थापित करने वाले राजा रायसल दरबारी के वंशज रायसलोत शेखावत कहलाये !राजा रायसल के १२ पुत्रों में से सात प्रशाखाओं का विकास हुवा जो इस प्रकार है -

लाड्खानी
राजा रायसल जी के जेस्ठ पुत्र लाल सिंह जी के वंशज लाड्खानी कहलाते है दान्तारामगढ़ के पास ये कई गावों में आबाद है यह क्षेत्र माधो मंडल के नाम से भी प्रशिध है पूर्व उप राष्ट्रपति श्री भैरों सिंह जी इसी वंश से है !

रावजी का शेखावत
राजा रायसल जी के पुत्र तिर्मल जी के वंशज रावजी का शेखावत कहलाते है !इनका राज्य सीकर,फतेहपुर,लछमनगढ़ आदि पर था !

ताजखानी शेखावत
राजा रायसल जी के पुत्र तेजसिंह के वंशज कहलाते है इनके गावं चावंङिया,भोदेसर ,छाजुसर आदि है

परसरामजी का शेखावत
राजा रायसल जी के पुत्र परसरामजी के वंशज परसरामजी का शेखावत कहलाते है !

हरिरामजी का शेखावत
हरिरामजी रायसलोत के वंशज हरिरामजी का शेखावत कहलाये !

गिरधर जी का शेखावत
राजा गिरधर दास राजा रायसलजी के बाद खंडेला के राजा बने इनके वंशज गिरधर जी का शेखावत कहलाये ,जागीर समाप्ति से पहले खंडेला,रानोली,खूड,सामी, दांता आदि ठिकाने इनके आधीन थे !

भोजराज जी का शेखावत
राजा रायसल के पुत्र और उदयपुरवाटी के स्वामी भोजराज के वंशज भोजराज जी का शेखावत कहलाते है ये भी दो उपशाखाओं के नाम से जाने जाते है, १-शार्दुल सिंह का शेखावत ,२-सलेदी सिंह का शेखावत 

गोपाल जी का शेखावत
गोपालजी सुजावत के वंशज गोपालजी का शेखावत कहलाते है | 

भेरू जी का शेखावत
भेरू जी सुजावत के वंशज भेरू जी का शेखावत कहलाते है |

चांदापोता शेखावत
चांदाजी सुजावत के वंशज के वंशज चांदापोता शेखावत कहलाये ।
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करणी हरणी कष्टकूं ,
विडारणी विशघात ,
उपकारणी उबारणी ,
विचारणी वरदात ।(1)

अंनता अक्षंता अंकिता ,
अखंडता ऊमेस ।
उपाणी खपाणी उमां ,
शक्ति माँ शरवेस ।(2)

सुबधा संचिता सुखिता ,
विमला कमला वेस ।
भवानी शिवानी भवा ,
आइ अम्ब आदेश ।(3)

जीवा तु शिवा तु जननी ,
ब्रमाणी तूं ब्रम्ह ।
शारदा पारदा सती ,
किरपाली मम् क्रम्म ।(4)

आद अनाद उपावणी,
सांभलै सर्वे साद ।
वाद को तूं विडारणी ,
माइ अम्ब मरियाद।(5)

भाखणी साखणी भवा ,
वाचणी सार वैद ।
तारणी सारणी तवा ,
भरणी सरणी भेद ।(6)

जुवारणी जाप जिभया ,
सवारणी शिवम् सुखास ।
विचारणी विवेक विधा ,
वित वाणी विसवास।(7)

उदंडा दडंणी उमां ,
प्रचडा रढा प्रख ।
विखंडा विहंदा वडी ,
चमूंडा चढा च्रख ।(8)

खटरासी खगे खेलणी ,
आसी पंरम आस ।
निवासी न्रिभिका नित्या ,
वासी अम्ब विश्वास ।(9)

खमिया खड़गां खेलणी ,
अमिया पूर्णा आस ।
नमिया आगल निर्मला ,
उमिया अम्ब उपास ।(10)

तर्ष्णा उवारणी तमा ,
क्रिष्णा गौ किरपाल ।
रसणा रास रमावणी ,
सरणा अम्ब सवाल ।(11)

अंनत नामां ईशरी ,
आखूं किम आलेख ।
करणी हरणी कष्ट कूं
लखाण शुभगुण लैख ।(12)

।। छंद भूजंगी ।।
नमो रिधु मात नमामी नमामी ,नमो करणी करणी करणी कहाणी ।
नमो किनिया कूळ जनमी मेहाजा , नमो मात देवला सुता शिवाजा।

नमो जम ताड़णी नमो जगदंबा ,नमो अम्ब ईशरी सदा अललंबा।
नमौ राज राई जौधाण ऊपासा ,नमौ रखी नीव सुखेण सुवासा ।
नमो बीकाणपत बीकानेर मण्डी , नमो दैशाण धाम आद अखंडी ।
नमो अवतार उदार आधार अम्बा ,नमो लाखण जीव लाई भुजलंबा।
नमो करनल्ला काबा रुखाळी ,नमो मात जालखी धरसुवाप भाळी ।
नमो अखियात नमो रढियाला ,नमो धाम सुवाप नमो जुनी जाळां ।
नमौ रूंढ हाथा नमो माँ शिवानी , नमो सर्वेश्री नमो आद भवानी ।
नमो पात ब्रम्हा नमो देपराणी ,नमो ब्रम्ह पंथी नमो तुं ब्रम्हाणी ।
नमो साय वंणी गंगा सिघ बाणी ,नमो ताड़ त्रिशूळ नमो सिंह हंणी ।
नमो टेर अणदै पूगी माँ भवानी ,नमो दंभी रूप जोड़ वरत जाणी।
नमो चौथ खाती साध ऊंठ सहाई ,नमो काठ पग जोड़यो मेहाई ।
नमो पंरम रूपा तो जगत प्रकाशै ,नमो नवखंडी अभय मैं विलाशे ।
नमो कान हंणे काळ को विभाड़ै ,नमो अरि पछाड़ सिंह सम दहाड़ै ।
नमो मुलतान पूगी नवखण्डा , नमो रूप समळी अकासी ऊदंडा ।
नमो पेथड़ पछाड़ हुइ पंरम पारा ,नमो गौ रिख्या बणी माँ आधारा ।
नमो सरग रूपा दैशाण धर थापे ,नमो ब्रम्हका रूप जीवन उथापे ।
नमो सुर साय वाचे सुरवाणी ,नमो पूर्णा पूर अरथ परमाणी ।
नमो सुभ जनम धरा तो सुआपा ,नमो चारणा वरण किनियाणी आपा ।
नमो नागदंस मेहा पिता पीड़ हैरी , नमो गरल हरणी नमो आद पहेरी ।
नमो गउ पालक तूं जांगलू राया ,नमो तो नमो नमो महामाया ।
नमो जैसाण बीकाण थीर ठाया , नमो गड़ियाळा तळाव सरद साया ।
नमो दुष्ट हणण बणी जमधूता , नमो मात सेवग सदा अबधूता ।
नमो जग ज्योती नमो जग राया ,नमो अमर ताली अमि सरसाया ।
नमो नाहर चड़ी बणी रंण चण्डी, नमो फाड़ सिंहण वैरिया ऊदंडी ।
नमो सर्वो रमा मात तो अमामी ,नमो अन धन अक्षय कर प्रामी ।
नमो सर्व सिध्दी नमो सर्व दाता ,नमो संमली रुप दरसणी माता ।
नमो बणी सांवली माँ सेखै सहाई ,नमो आभ पथी मुलतान सेतुं लाई ।
आइ तो कोलायत सरोवर श्राप दीयौ , डुबकी लाखण त्याग तो कीयो ।
नमो भ्रम भजणी वैरीया ऊदंडा ,नमो त्रिपुरारी आदी तूं अंखंडा ।
नमो त्रिशुराळी पंरम पारा पारथी ,नमो वंश देपोजी शिवा रुप सारथी ।
नमो सुभ वाणी नमो सरग रासी , नमो बाळ लीला मेहा घर विलासी ।
नमो मढ नैहड़ी खेजड़ी मैहाई ,नमो गौरक्षा गौपालक हो गरवाई।
नमो अवतारी नमो हिगं लाजा ,नमो सत आवड़ा सरसाई समाजा,
नमौ धर देशणोक धाम दैशाणा ,नमौ किरपाळी बणी तो बीकाणा ।
नमो सत रहम करूणा कर धारी ,नमो हाथ कंमडळ गंगाजळ झारी ।
नमो काळका रूप अरीयां विडारै , नमो वागैश्री वहारू हैत धारै ।
नमो जाळ जोगणी नमो निझ वासा ,नमो अकास गामी अमि रस पासा ।
नमो उपकारणी नमो ओम रूपा ,नमो ऊदारणी पंरम अनूपा ।
नमो शिखराळी नमो सर्वव्यापा ,नमो चूहांवाळी द्विवज जीवन दाता।
नमो धीर धरणी नित्य धीर वाजा ,नमो दूर्गथापी अंखण्डी आवाजा ।
नमो राज राजेश्री जोग धाता ,नमो राठौड़ राइ नमो राज माता ।
नमो कांधलां विरध सत्या कुळ देवी ,नमो नमस्कार सदा सूख सेवी ।
नमो कंमख्या देवि नमो आद अनूपा ,नमो हाथ कंमडल नमो मंत्र सरूपा।
नमो मंत्र मणी नमो बीज मंत्रा ,नमो सप्त बाई नमो जुगत जंत्रा
नमो सुधा मणी नमो दंभी रूपा , नमो रूप बौघी तुरत सार संधूपा ।
नमो सत वाणी नमो सुख वासी ,नमो पिता तान नमो जीवन आसी ।
नमो छत्रधारी नमो वेद वाणी ,नमो देव दूती शिवाणी प्रामाणी ।
नमो द्वदं हरणी अंनता अखण्डी , नमो करणी करनला नवांखंड मंडी।
नमुं अम्ब नमो माँ नमामी उपासी ,नमो तु नमो नमो पंरम प्रकासी ।
।।कलश ।।

नमो अंनता नाम ,करणी स्वरुप कहाया ।
नमो अंनता नाम , विराट विवेक वताया ।
नमो अंनता नाम ,धरणी दैशाण धाया ।
नमो अंनता नाम , ऊंमा अवतार आया ।
नमस्कार नमामी निरमळा ,उमिया खमिया अवतारी ।
अम्ब किरपाळी सदा अम्बे ,ध्यान सत धीरज धारी ।


कोई गलती हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ सा-जोधा राठौड़ परावा

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कमल सिंह जोधा (रूद्रा प्रताप राठौड़)
ठिकाना परावा, सुजानगढ़, चूरू 
बीदासर 
09928634202